कैसा न्यारा कैसा अनूठा
है नाता रंगमंच से रंगकारी का
वो रुझाव वो खिंचाव
जो रहे परस्पर नर और नारी का
कभी गर्वित माता के भाँति
निष्ठावादी को सराहती है
कभी शिक्षक बनके वो
अहंकारी को गिराती है
कलाकार का मंदिर है मंच
वही उसका इष्ट भी है
वही उसकी पहचान बने है
कभी बने उसकी पृष्ठभूमि है
ऐसी करुणा की गाथा
हमने सुन भी रखी है
जीवन की साँसों का लय भी
कलाकार ने मंच की आँचल में ही तोड़ी है
आशा का स्तोत्र है मंच
प्रेमी, माता, प्रभु यही
एक बार जीवन मंच से जो जुड़े
आरम्भ भी वही
अंत भी वही