Tuesday, February 25, 2014

badalte hain

आज फिर कुछ जागे हैं हम
फिर मन में एक धधक उठी है
एक चाह जगी है
कि कुछ निशान छोड़े हम
जहाँ बैठें, वहाँ एक हलकि सी खुशबु छोड़ जाएँ
जहाँ उठ खड़े हों, वहाँ ज़मीन पर एक छाप छोड़ जाएँ
जहाँ चलें, वहाँ अपने क़दमों से नए रस्ते बनाते जाएं

बहुत महसूस कर लिया सूरज कि तपन को पीठ पे
अब मन है ठन्डी हवा के थपेड़ों को मूह पे महसूस करना है
दीवार पकड़ पकड़ के चलना, बस अब और नहीं
थोड़ा  गिरना,थोड़ा लड़खड़ाना, पर अपने दम पे चलना है

अपनी पहचान को न खोना चाहती हूँ
न अपनी कोई कोई नई पहचान बनानी है मुझे
अपने इस वर्त्तमान पहचान को और मज़बूत बनाना चाहती हूँ मैं
इसी पहचान को मान देना चाहती हूँ मैं

सिर्फ जीना तो बहुत कर लिया मैंने
वोह कला तो मुझे आती है खूब
पर अब इस जीवन की छवि को थोड़ा बदलना है
थोड़े भरने है इसमें उत्तेजन के रंग
थोड़ी डालनी है इसमें क्रांति की धुप